Friday, September 29, 2017

Nothing of me is mine.

                                

                           I Owe You


आओ और न सोचो, सोच के क्या पाओगे 
जितना भी समझे हो, उतना पछताए हो 
                                                        जावेद अख़्तर     

आओ और न सोचो, सोच कर क्या पाओगे 
जितना भी समझे हो, उतना पछताए हो 
अब इतनी समझ लेकर तुम कहाँ जाओगे 
जितना भी समझोगे, उतना ही उलझोगे 

गनीमत है, तुम खुद को सुलझा पाओगे 
आदम के अख्लाकी कारागारों में 
कायदों में किरदारों में 
खुद को  ढल्ता पाओगे 

आओ और न सोचो 
ज्यादा गर तुम सोचोगे    
तो उधार की सोच से 
वक़्त की नींव पर बनी 
ये समझ की इमारत ढह जाएगी 

आज़ादी तो ले जाओगे 
मगर वीरानों में खो जाओगे 
वो समझ वापस न बुन पाओगे 
वक़्त से मत खाओगे 
यार बड़े पछताओगे 

समझ में सब आएगा 
समझ न कभी कुछ पाओगे 
चोट तो तुम खाओगे 
महसूस न कभी कर पाओगे 
सही और गलत ही भूल जाओगे 


Friday, May 12, 2017

For the professor.

                         

               NIGHTingale .2


काश के होती इस चेहरे पर गुस्से की वो शिकनें 
बस कुछ ही पलों के लिए 
तो शायद ख़ुद को तुजसे नाराज़ पाता मैं 
यूँ खुली आँखों से न
तेरे तस्सवुर के जाम पाता मैं 

काश के होती उस आवाज़ में ज़रा सी कड़वाहट 
तो यूँ न तुझे सुनने के लिए                                         
ज़ेहन में झूठे सवाल बुन पाता मैं 

ऐ काश न होता तुझमें वो अदब                 
तो न होता मैं भी इतना बेअदब    
फ़िर अपनी कलम की इन गुस्ताखियों  में 
न तुझे तू बुलाता मैं                                                         

काश के होती मुझमे वो समझ 
की तुझे                                                   
इस लिबास, शक्ल और स्वभाव के 
पार देख पाता मैं 
गर न होता ये पाक रिश्ता दरमियाँ
तो किसी दिन बिना गुनाह की खलन के 
तुझसे नज़रें मिलाता मैं

Friday, March 24, 2017

Woods of thoughts

                     उम्मीद

बेरोज़गारी के उस लम्हे में
जो ख़याली बीज बोया था मैंने
वो ऐसे फैला
की आज वहां एक जंगल हो गया है
आरजू का ये मुसाफ़िर
ख़ुद ही उसमे खो गया है
आफ़ताब गरूब होने को है
मगर कोई पगडण्डी नहीं दिखती

अँधेरा जो आया है
अपने साथ कई फरीब-ए-नज़र लाया है
पेड़ों की टहनियां भी अब तो
सांप नज़र आती हैं

जिस्म कट रहा है काँटों से
लहू के कुछ ही क़तरे बाक़ी हैं
कि अचानक इक रौशनी दिखी है
इतनी छोटी है
बोहोत दूर मालूम होती है

शक है उसे
क्या ये चंद लहू के क़तरे
ले जाएंगे उसे वहां तक

मुसाफ़िर टूट कर गिर गया है
ख़ुदा से जन्नत की भीक़ मांगने लगा है
अचानक वो रौशनी उसके पास आई

अब मालूम होता है
जुगनू-ए-उम्मीद से निकल रही थी वो
जुगनू को राह मालूम थी
मगर वो भी मर रहा था
इस वीरान जंगल में बेसहारा

उसे आस थी
मुसाफ़िर के हत्थे चढ़कर वो भी
जंगल पार कर लेगा
मगर अब वो भी मौत के आहोश में है

ऐ काश
मुसाफ़िर को जुगनू-ए-उम्मीद का इल्म होता


Monday, March 20, 2017

Dysphoria

                       नब्ज़


ज़िन्दगी थम सी गई है
कि मौत भी अब तो
एक हलचल सी लगती है
छोटी सी हलचल

यूँ लगता है मेरा हर ख्वाब
बिजली की तार सा है
जिसमें ज़िन्दगी भरी हो
रफ़्तार भरी हो
वो बदलाव भरा हो
जिसकी तलाश है मुझे

मगर ये समझ
रोकती है मुझे वो तार छूने से
इसे लगता है ये मौत है
मगर दिन और रात का चक्कर लगाता
ये मुज्जसिमा ज़िंदा कहाँ है

नब्ज थम गई है इसकी
दिल बेचैन है उस बिजली के लिए
उस हलचल के लिए
जब हर लम्हा एहसास मेरे
इक बदलाव का जाम पियें

इक आस है
शायद मेरी नब्ज फिर से चल पड़े

Wednesday, February 8, 2017

For Human Perception

A Vulnerable Mind


When I rewind back in time
I usually find a vulnerable mind
nurtured by the environment
tortured by the environment
the spectacles I wear of perception
sometimes leads to dangerous deceptions
realizing the fake
faking the reality

when I rewind back in time
I usually find a vulnerable mind
I see what I want to
I feel what I want to
do I really want to

I find myself bind by chains
chains of experiences
chains of feelings
chains originated from a chain of events
chains following a fixed pattern
I try to break the chains
the more I strike,more I stuck

when I rewind back in time
I usually find
I am not I
you are not you
then who the fuck
 are we pretending to?

sometimes I laugh at you
your fixed reactions to actions
but soon I realize
I am one of you
en lighting the patterns
by following them

here exists the irony....

Monday, January 9, 2017

Despicable Me


                                                              चोरी 

ये चार दिन की चांदनी हमें गवारा नहीं 
 हम दुनिया से चाँद ही चुरा लेंगे  
अगर तरसेगी दीदार-ए-चाँद को ये कायनात 
फिर भी हम चाँद को न देंगे 

फिर न होगी पूर्णमाशी 
न अमावस्या 
न करवाचौथ की कोई समस्या
चारो तरफ अँधियारा होगा 
वो खूबसीरत चाँद सिर्फ हमारा होगा 
और वो रूहानी चांदनी भी 

 हम दुनिया से चाँद ही चुरा लेंगे 
रातों के सर्द सन्नाटों में 
उसे अकेले ही ताकेंगे
उसके सारे दागों को
 हम खुद में समां लेंगे 
दुनिया की काफिर नज़रों से 
हम उसे बचा लेंगे 

ये चार दिन की चांदनी हमें गवारा नहीं 
हम दुनिया से चाँद ही चुरा लेंगे