NIGHTingale .2
काश के होती इस चेहरे पर गुस्से की वो शिकनें
बस कुछ ही पलों के लिए
तो शायद ख़ुद को तुजसे नाराज़ पाता मैं
यूँ खुली आँखों से न
तेरे तस्सवुर के जाम पाता मैं
काश के होती उस आवाज़ में ज़रा सी कड़वाहट
तो यूँ न तुझे सुनने के लिए
ज़ेहन में झूठे सवाल बुन पाता मैं
ऐ काश न होता तुझमें वो अदब
तो न होता मैं भी इतना बेअदब
फ़िर अपनी कलम की इन गुस्ताखियों में
न तुझे तू बुलाता मैं
काश के होती मुझमे वो समझ
की तुझे
इस लिबास, शक्ल और स्वभाव के
पार देख पाता मैं
पार देख पाता मैं
गर न होता ये पाक रिश्ता दरमियाँ
तो किसी दिन बिना गुनाह की खलन के
तुझसे नज़रें मिलाता मैं
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