उम्मीद
बेरोज़गारी के उस लम्हे में
जो ख़याली बीज बोया था मैंने
वो ऐसे फैला
की आज वहां एक जंगल हो गया है
आरजू का ये मुसाफ़िर
ख़ुद ही उसमे खो गया है
आफ़ताब गरूब होने को है
मगर कोई पगडण्डी नहीं दिखती
जो ख़याली बीज बोया था मैंने
वो ऐसे फैला
की आज वहां एक जंगल हो गया है
आरजू का ये मुसाफ़िर
ख़ुद ही उसमे खो गया है
आफ़ताब गरूब होने को है
मगर कोई पगडण्डी नहीं दिखती
अँधेरा जो आया है
अपने साथ कई फरीब-ए-नज़र लाया है
पेड़ों की टहनियां भी अब तो
सांप नज़र आती हैं
अपने साथ कई फरीब-ए-नज़र लाया है
पेड़ों की टहनियां भी अब तो
सांप नज़र आती हैं
जिस्म कट रहा है काँटों से
लहू के कुछ ही क़तरे बाक़ी हैं
कि अचानक इक रौशनी दिखी है
इतनी छोटी है
बोहोत दूर मालूम होती है
लहू के कुछ ही क़तरे बाक़ी हैं
कि अचानक इक रौशनी दिखी है
इतनी छोटी है
बोहोत दूर मालूम होती है
शक है उसे
क्या ये चंद लहू के क़तरे
ले जाएंगे उसे वहां तक
क्या ये चंद लहू के क़तरे
ले जाएंगे उसे वहां तक
मुसाफ़िर टूट कर गिर गया है
ख़ुदा से जन्नत की भीक़ मांगने लगा है
ख़ुदा से जन्नत की भीक़ मांगने लगा है
अचानक वो रौशनी उसके पास आई
अब मालूम होता है
जुगनू-ए-उम्मीद से निकल रही थी वो
जुगनू को राह मालूम थी
मगर वो भी मर रहा था
इस वीरान जंगल में बेसहारा
मगर वो भी मर रहा था
इस वीरान जंगल में बेसहारा
उसे आस थी
मुसाफ़िर के हत्थे चढ़कर वो भी
जंगल पार कर लेगा
मगर अब वो भी मौत के आहोश में है
ऐ काश
मुसाफ़िर को जुगनू-ए-उम्मीद का इल्म होता
मुसाफ़िर को जुगनू-ए-उम्मीद का इल्म होता
No comments:
Post a Comment