Friday, March 24, 2017

Woods of thoughts

                     उम्मीद

बेरोज़गारी के उस लम्हे में
जो ख़याली बीज बोया था मैंने
वो ऐसे फैला
की आज वहां एक जंगल हो गया है
आरजू का ये मुसाफ़िर
ख़ुद ही उसमे खो गया है
आफ़ताब गरूब होने को है
मगर कोई पगडण्डी नहीं दिखती

अँधेरा जो आया है
अपने साथ कई फरीब-ए-नज़र लाया है
पेड़ों की टहनियां भी अब तो
सांप नज़र आती हैं

जिस्म कट रहा है काँटों से
लहू के कुछ ही क़तरे बाक़ी हैं
कि अचानक इक रौशनी दिखी है
इतनी छोटी है
बोहोत दूर मालूम होती है

शक है उसे
क्या ये चंद लहू के क़तरे
ले जाएंगे उसे वहां तक

मुसाफ़िर टूट कर गिर गया है
ख़ुदा से जन्नत की भीक़ मांगने लगा है
अचानक वो रौशनी उसके पास आई

अब मालूम होता है
जुगनू-ए-उम्मीद से निकल रही थी वो
जुगनू को राह मालूम थी
मगर वो भी मर रहा था
इस वीरान जंगल में बेसहारा

उसे आस थी
मुसाफ़िर के हत्थे चढ़कर वो भी
जंगल पार कर लेगा
मगर अब वो भी मौत के आहोश में है

ऐ काश
मुसाफ़िर को जुगनू-ए-उम्मीद का इल्म होता


Monday, March 20, 2017

Dysphoria

                       नब्ज़


ज़िन्दगी थम सी गई है
कि मौत भी अब तो
एक हलचल सी लगती है
छोटी सी हलचल

यूँ लगता है मेरा हर ख्वाब
बिजली की तार सा है
जिसमें ज़िन्दगी भरी हो
रफ़्तार भरी हो
वो बदलाव भरा हो
जिसकी तलाश है मुझे

मगर ये समझ
रोकती है मुझे वो तार छूने से
इसे लगता है ये मौत है
मगर दिन और रात का चक्कर लगाता
ये मुज्जसिमा ज़िंदा कहाँ है

नब्ज थम गई है इसकी
दिल बेचैन है उस बिजली के लिए
उस हलचल के लिए
जब हर लम्हा एहसास मेरे
इक बदलाव का जाम पियें

इक आस है
शायद मेरी नब्ज फिर से चल पड़े