मलबा
बरसों पहले बुजुर्गों ने मकाँ जो बनाया था
आज वो ढह गया है
हुआ करता था महल जहां
आज बस मलबा ही रह गया है
वो जो लोग जंगलों से आए थे
एक नई सोच, एक नई सीख अपने साथ लाए थे
अदब, आबरू, तहज़ीब और शर्म
मकाँ की हर ईंट में समाए थे
इसी जुनून में तो नए घर बनाए थे
मकाँ जो इतना मज़बूत बना था
आँधी तूफ़ान में भी तन के खड़ा था
दुनिया से अनजान थे उसके बाशिंदे
रोशनी को बिना इजाज़त अंदर आना जो मना था
बड़ा अहम था उनको अपने उसूलों पर
अपने तजुर्बों के नायाब नमूनों पर
वक्त भी बैठा था वक्त के इंतेज़ार में
ढह गया वो मकाँ बदलावों की धीमी धार से
मलबे के ढेर पर बैठा देखता हूँ
मकाँ तो है नहीं मगर नक़्शा कुछ मौजूद है
बिन दीवारों के उस मकाँ में
उन बाशिंदों की नस्लें आज भी क़ैद है
काश वो मकाँ इतना मज़बूत ना बना होता
तो वक्त के रहम से आज भी खड़ा होता
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