शब्दजाल
मेरे दिल से निकली एक तरंग थी वोजेहन तक पोहोंची तो ख्यालों में ढल गयी
जुबां पर आई तो लफ्जों में बदल गयी
मेरे दिल से निकली एक तरंग थी वो
जिसे मेरे जेहन की समझ ने , डर ने , विश्वास ने , स्वाभाव ने
मैला कर दिया
जब वो हवाओं को चीरकर
तुज तक पोहोंची
तब वो और भी मैली थी
मेरे दिल से निकली एक तरंग थी वो
जो इस शब्दजाल में उलझकर
तेरे दिल का ठिकाना भूल गयी
तो आओ बनाएं हम दिल के पार एक खिड़की ऐसी
की मेरे दिल से निकली तरंग तेरे दिल से जा मिले
लफ्जों का कोई वजूद ही न हो
न कोई सच न झूठ न सही न ग़लत